कहानी - बस कब चलेगी | लेखक - संजय विद्रोही

 अस्सी बरस के खिल्लन मियाँ को जब से ये पता चला है कि श्रीनगर-मुज़्ज़फ़राबाद के बीच सरहद के आर-पार बसें चलने वाली हैं, तब से मानो उनके पाँव ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। आँखें ऐसे चमकने लगी थी, मानो बुझते चराग़ों में किसी ने तेल डाल दिया हो। दिल में अपने खानदान के लोगों से मिलने की हूक फिर से उठने लगी थी। मुर्दा हो चली ख़्वाहिशें फिर से साँस लेने लगी थीं। चेहरे की झुर्रियों में उम्मीदों की लकीरें साफ़ पढ़ी जा सकती थी। चाल की नज़ाकत और बेंत ज़मीन पर टिकाते वक्त गहरा आत्मविश्वास देखते ही बनता था। आठों पहर बस यही ख़याल दिल में चलता रहता था कि ''बस कब चलेगी?''



 

चौख़ाने वाली लुंगी, चिकन का कुर्ता, सिर पर कढ़ाईदार टोपी, सफ़ेद दूध-सी दाढ़ी, झुकी हुई कमर और हाथ में एक तीनेक फुट का बेंत। बस, इतना-सा बयान काफ़ी है खिल्लन मियाँ की दरियाफ़्त के लिए। पिछले पचपन सालों से खिल्लन मियाँ श्रीनगर के ही बाशिंदे हैं। किसी ज़माने में उस इलाके में रहते थे, जो अब ''सरहद पार का'' कहलाता है। जिस्म बेशक श्रीनगर में है, पर रूह आज भी उन गलियों में ही भटकती है जहाँ बचपन बीता था। जहाँ की ख़ाक में माँ-बाप की यादें दफ़न हैं। श्रीनगर में चौक से बाईं ओर चलने पर ढलान से उतर कर मुर्गीवालों की बस्ती के पिछवाडे पुराने मुसाफ़िरख़ाने के पास ही खिल्लन मियाँ रहते हैं, अपनी शरीके हयात मेहरून्निसा के साथ। टूटा-फूटा-सा दो कमरों का वो घर खिल्लन मियाँ का घर भी है और दुकान भी।

खिल्लन मियाँ बाहर वाले कमरे में छोटा-मोटा राशन का सामान, बच्चों की कॉपी-पेंसिल, सिगरेट-बीड़ी, गोली-मिठाई, खैनी-तंबाकू की लड़ियाँ आदि लेकर बैठते हैं सुबह को और साँझ के सात बजते-बजते दुकान को समेट कर घर में रख देते हैं। बाल-बच्चे खुदा ने दिए ज़रूर किंतु खुदा को ही प्यारे हो गए सारे। दो लड़कियाँ हैजे की भेंट चढ़ गई। एक लड़का था, चेचक की राह चला गया। रह गए बूढ़ा बूढ़ी दोनों। लेकिन सरहद पार खिल्लन मियाँ का पूरा कुनबा आबाद है। तीनों भाइयों के लड़के और नाती-पोते-पडपोते, सब खुदा के फज़ल से खा-कमा रहे हैं। इस्लामाबाद में सब्ज़ी मंडी के पास वाली गली में उनकी कपड़े की दुकान है।

दोनों मुल्कों के बीच बसें चलने की ख़बर सुनकर खिल्लन मियाँ के दिल में भाई-बंधुओं से मिलने के दबे हुए अरमान फिर से मुँह उठाने लगे थे। तीनों बड़े भाई अल्लाह को प्यारे हुए और वो आँसू बहा कर रह गए। बीच वाली भाभी टी।बी।से गुज़र गई तब भी वो मन मसोस कर रह गए। धीरे-धीरे दिल ने उम्मीद छोड़ दी और मरते दम तक मिलने की कोई सूरत ना होगी, सोचकर सब्र कर लिया। पर खुदा ख़ैर करे। दोनों ओर के बाशिंदों की पुकार आख़िरकार खुदा ने सुन ही ली। दोनों मुल्कों के हुक्मरानों ने इस बात पर एकराय कर ली है कि बहुत हो चुका, अब मिलने दो बिछुडों को। अल्लाह उन पर करम करे।

जब से माहौल में ये सुगबुगाहट होने लगी है तब से खिल्लन मियाँ की दिनचर्या में एक और काम शामिल हो गया था। वो यह कि रोज़ सुबह बिला नागा उठकर रफ़ीक की दुकान पर जाना और उससे अख़बार में छपी ख़बरें पूछना। ''क्या चल रहा है रफ़ीके? कब चलेंगी बसें? हमारे हुक्मरान क्या कह रहे हैं? उनका सदर क्या कहता है?'' आदि-आदि। रफ़ीक बड़ी मान-मन्नौवल के बाद खिल्लन मियाँ को हेडलाईनें पढ़कर सुनाता था और मियाँ बड़े चाव के साथ बेंत पर चेहरा टिका कर ध्यान से सुनते थे। ज़ब कभी रफ़ीक बताता ''चचा दहशतगर्दों ने बसें चलाने पर कहर बरपा देने की धमकियाँ दी हैं'' या ''बसों को बम से उड़ाने की पिलानिंग है'' तो सुनकर खिल्लन मियाँ का चेहरा एकदम बुझ जाता था। बूढ़ी आँखों की उदासी तब देखते ही बनती थी। चेहरा एकाएक ज़र्द पड़ जाता था। तब वो ज़्यादा देर रफ़ीक के पास नहीं बैठ पाते थे और निराश कदमों से घर की ओर चल देते थे। उस दिन वो बडे उदास-उदास और अनमने-से रहते। किसी भी काम में उनका दिल नहीं लगता और रह-रह कर अपने आप में ही बडबडाते रहते, '' ख़ुदा गा़रत करे इन नामुरादों को। क्यों भाई को भाई से नहीं मिलने देते? सत्तावन बरस के बाद अब जाकर यह दिन आया है। तो क्यों यह सब हो रहा है? न जाने खुदा को क्या मंज़ूर है? या खुदा ऱाह दिखा।''

ख़िल्लन मियाँ को आज भी याद है कि अड़तालिस के बँटवारे के वक्त वे तेईस बरस के थे, मेहरू अठ्ठारह की और बड़ी लड़की निगार तीन बरस की। चारों ओर हा-हाकार मची थी। खून की एक लकीर ने दिलों को दो मुल्कों में तकसीम कर दिया था। वतन का नाम आदमी की पहचान हो गया था और मज़हब का इल्म जान की अमान। बँटवारे की आग में दोनों मुल्क धू-धू कर जल रहे थे। आधी रात को एक दूसरे के काम आने वाले बरसों पुराने पड़ोसी, एक दूसरे के खून के प्यासे दिखाई पड़ते थे। लोग माल-असबाब छोड़कर जान बचाते फिर रहे थे। लूट-खसोट के मंज़र आम हो चले थे। बहू-बेटियों की इज़्ज़त सरेराह लूटी जा रही थी। अच्छे भले लोग मुज़ाहिर कहे जाने लगे थे। चारों भाइयों में खिल्लन सबसे छोटा था और उन दिनों लाहौर में अपने मामू के घर में रहता था। ठेके के काम में वो उनका हाथ बँटाता था। मामू का ज़्यादातर काम अमृतसर में था। सो लाहौर-अमृतसर के बीच उसके चक्कर लगे रहते थे। बलवे के वक्त मामू अपने और उसके परिवार को लेकर बामुश्किल अमृतसर पहुँच पाए थे। भाई-भाभी और बच्चे सब पीछे छूट गए थे।

लोग धीरे-धीरे दूरियों के दर्द को अल्लाह की मर्ज़ी और अपना मुकद्दर समझकर सब्र करने लगे थे। तड़प जब हद से गुज़र जाती है तो भूलने लगती है। यही हुआ खिल्लन के साथ भी। वो भी बिछुड़न को विधाता की मर्ज़ी मानकर रह गया। हाँ, ख़बरें ज़रूर उसको बराबर मिलती रहीं कि अब बड़े भाई-भाभी एक्सीडेंट में मारे गए। बीच वाला भाई साँप काटने से चला गया और उसकी बेवा अकेली पाँच बच्चों की परवरिश कर रही है। तीसरे नंबर वाला एक कपड़े की दुकान पर मुंशीगिरी कर रहा है। धीरे-धीरे ख़बरों का ये सिलसिला भी कम होने लगा और होते-होते बंद-सा हो गया। इधर खिल्लन को कुछ समय तो मामू का सहारा रहा। पर एक दिन किसी ज़रा-सी बात पर कहासुनी हो गई और उनका सहारा भी जाता रहा। तब खिल्लन अमृतसर से निकल कर श्रीनगर चला आया और यहीं का होकर रह गया। पर आज भी कभी जब पुरानी बातें याद आती हैं तो दिल में अपने कुनबे से मिलने की हूक बडे ज़ोरों से उठती है और सीने में उस वक्त एक नश्तर-सा गड़ जाता है। उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर जबकि पाँव कब्र में झूल रहे हैं, खुदा के फज़ल से बिछडों से मिलने की सूरत बनती दिखाई पड़ रही है तो ये दहशतगर्द नामुराद अडंगा लगा रहे हैं। खुदा इनको अक्ल दे।

फिर एक दिन रफ़ीके ने बताया, ''चचा! सरहद पार का एक बड़ा वजीर अजमेर शरीफ़ में ख्वाजा साहब पर चादर चढ़ाने आ रहा है।'' सुनकर मानो खिल्लन मियाँ के तो पंख ही लग गए, ''काश! मैं उनसे जाकर मिल सकता तो ज़रूर ये इल्तिजा करता कि हुज़ूरेवाला बसें चलाने में ये देरी कैसी? क्या दहशतगर्दों की धमकियों से आप डरते हैं? अगर वो बस को बम से उड़ाते हैं तो उड़ाने दीजिए। कुछ जानें जाएँगी, चली जाएँ क़ोई बात नहीं क़म से कम अमन की राह तो खुलेगी।'' मियाँ उत्साह में थे, '' क़ोई नहीं जाता, न जाए। डरते हैं सब, तो घर में बैठें। मैं जाऊँगा पहली बस में।'' मियाँ रौ में थे। रफ़ीक मुँह ताकता रह गया।

जिस दिन पड़ोसी मुल्क का वजीर अजमेर शरीफ पहुँचने वाला था, उस दिन अल्लसुबह ही खिल्लन मियाँ तैयार हो गए। शेरवानी पहन कर बेंत टिकाते हुए चौक वाली मस्जिद में जा पहुँचे। खुदा की चौखट पर घुटने टिकाकर आँखें मूँद ली, हाथ उठा लिए, और मन ही मन बुदबुदाने लगे, ''या खुदा श्रीनगर से मुज़्ज़फराबाद इतनी दूर तो नहीं कि राह काटे ना कटे। हमारी दुआएँ वहाँ पहुँचे, उनकी दुआएँ यहाँ। दिलों के बीच की खाई भर जाए किसी तरह। भाई से भाई मिल जाएँ किसी तरह, बस'' दो कतरे आँखों के कोनों से निकल कर चेहरे की झुर्रियों में खो गए। ''या गऱीबनवाज़ आज तेरे दर पे पड़ौसी मुल्क का नुमाइंदा आएगा। उसके दिल की थाह ले मेरे मलिक, बिछड़ों को मिलाने की सूरत निकाल किसी तरह। तुझे गुज़रे सत्तावन सालों के दर्द का वास्ता'' खिल्लन मियाँ यों हुए जा रहे थे, मानो सीधे खुदा से बात कर रहे हों और जैसे उनकी दुआ श्रीनगर से चलकर सीधे अजमेर में ख्वाजा ग़रीबनवाज़ के पास पहुँच रही हो। कुछ देर यों ही सजदे में बैठे रहने के बाद खिल्लन मियाँ उठे और अपनी बेंत टिकाते हुए घर की ओर चल दिए। 

रास्ते में ही जमाल्लुद्दीन हाजी का घर पड़ता था। वे बाहर ही दिख गए। उन्होंने खिल्लन को पुकार लिया, "कहो मियाँ किधर से आ रही है सवारी?"
"खुदा की चौखट पर माथा रगड़ के आ रहा हूँ मियाँ।" खिल्लन मियाँ के स्वर में अजीब-सी उदासी थी।
"ख़ैरियत तो है?" जमाल्लुद्दीन ने उसके चेहरे की परेशानी को देखते हुए पूछा।
"ख़ैरियत क्या पूछते हो मियाँ? खैऱियत का तो माहौल ही नहीं बन पा रहा है इस मुल्क में। अमन का एक छोटा-सा चराग रोशन होने को है और लोग हैं कि आँधियों को उसका पता देते फिर रहे हैं।"
"क्यों, क्या हुआ?" जमाल्लुद्दीन ने बैठने को मोढा खिल्लन मियाँ की ओर बढ़ाते हुए पूछा।
"क्या बताऊँ मियाँ? जब सियासतदाँ तैयार नहीं थे तब हम उनको कोसते थे कि वो बेवजह सरहद पार हमें हमारे कुनबे वालों से मिलने से रोकते हैं। आज जब वो राज़ी हुए हैं तो अपने ही लोग अमन की मुहिम में रोडे खड़े कर रहे हैं।'' मन की पीड़ा जुबान पर आ ही गई।
"बसों की बात कर रहे हो क्या?" जमाल ने दुखती रग पर हाथ धर दिया।
"और नहीं तो क्या? मैं तो ये मान ही चुका था कि बगैर अपनों की सूरत देखे ही दुनिया से रुख़सत हो जाऊँगा। अब, जबकि इन टिमटिमाती आँखों को उम्मीद की एक झलक नज़र आने लगी है तो ये हाल है। कहते हैं, बस को बम से उड़ा देंगे, कहर बरपा कर देंगे।"
"हाँ, मैंने भी पढ़ा है अख़बार में। कश्मीर की आड़ में कुछ चुनिंदा अहमक मतलबी लोगों के ये नापाक इरादे ही तो हैं जो भाई को भाई से मिलने नहीं देते। कश्मीर के मसले कश्मीर वालों को खुद क्यों नहीं सुलझाने देते ये लोग? क्यों हमारे मुकद्दरों का फ़ैसला करने पर आमादा हैं। पहले ही क्या कुछ कम गुज़र चुका है?" जमाल्लुद्दीन हाजी के मन का हाल भी खिल्लन मियाँ से जुदा ना था। आवाज़ में बँटवारे का दर्द साफ़ सुनाई पड़ रहा था। जमाल्लुद्दीन के भी कुछ रिश्तेदार ''उधर'' थे।
"वही तो। इसके इलावा जमाल भाई हम ये क्यों नहीं समझते कि दोनों मुल्कों का माज़ी साँझा है, आज़ादी की लड़ाई साँझी थी, बुजुर्ग पीढियाँ साँझी थी, भाषा-बोली, रीत-रिवाज, खानपान सबकुछ एक-से हैं। तो मुस्तकबिल कैसे जुदा हो सकते हैं? दोनों क्यों नहीं एक और एक मिलकर ग्यारह बनते? क्या रखा है इस अदावत में? नाहक ही दूसरों के बहकावे में आकर अपनी साँझी रवायत को भुलाए बैठे हैं। क्या मिला है आजतक इस अदावत से। सिवा तीन लडाइयों और आए दिन के धमाकों के।"
"वो तो तुम ठीक कहते हो। पर सियासत वालों की रोटियाँ तो उसी में सिकती हैं ना, जिसमें हम जुदा रहें।"
"ये कैसी सियासत है, जो अपने ही मुल्क की तरक्की को रोक रही है? तुम ही कहो, जितना रुपया दोनों मुल्क गोला-बारूद पर खर्च कर रहे हैं, उसका आधा भी अगर भूख, ग़रीबी, तालीम और रोज़गार पर खर्च करें। तो क्या नहीं हो सकता? नक्शा बदल सकता है दोनों मुल्कों का। लोगों के पास खाने को दाने नहीं हैं और ये हैं कि तोप-तमंचों का अंबार लगाने में लगे हैं। आधी सदी गुज़र गई पर इनको अक्ल नहीं आई।" खिल्लन मियाँ तकरीर-सी करने लगे थे। पर बात पते की कह रहे थे।
"तुम ठीक कहते हो खिल्लन मियाँ। पर मेरे भाई हमारे चाहने से क्या होता है। होगा तो वही जो दिल्ली और इस्लामाबाद वाले चाहेंगे।'' जमाल ने बडे सीधे लफ़्ज़ों में बड़ी गहरी बात कही थी। दोनों के चेहरे पर बेबसी को भाव साफ़ पढ़े जा सकते थे।
"सो तो है।" सुनकर खिल्लन मियाँ उसांस छोडते हुए बस इतना ही कह पाए और ''खुदा हाफ़िज़'' कर के उठ लिए। कदम घर की और थे

सडकों पर चहल-पहल होने लगी थी। रिक्शा, टैंपो, गाडियाँ आने-जाने लगी थी। एक दो फौजी गाडियाँ भी सामने से गुज़र गई थी। खिल्लन ने एक पल रुककर उनको जाते हुए देखा और फिर आगे बढ़ गया। वो ज़्यादा दूर नहीं गया होगा कि उसने देखा, रंगरेजों की गली में से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और मोटरसाईकिल पर सवार दूसरे आदमी के साथ बैठ कर तेज़ी से एक ओर को भाग गया। खिल्लन ने देख कर अनदेखा कर दिया और मुसाफ़िरखाने की और मुड़ गया। अभी शायद वो बीसेक कदम ही चला होगा कि एक ज़ोरों की दिल दहला देने वाली आवाज़ हुई ''भडाम''। सुनकर कानों के पर्दे हिल गए। बरबस ही मुँह से निकल पड़ा, ''या खुदा मदद कर। ज़रूर कहीं पर धमाका हुआ है। फिर कहीं कोई बम फटा है। ज़लील लोग अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आएँगे।'' तभी कुछ बदहवास लोग पास से भागते हुए गुज़रे। एक को रोक कर खिल्लन मियाँ ने पूछा, "क्या हुआ बरखुरदार?"
"चचा, बड़ा तेज़ धमाका हुआ है रंगरेजों वाली गली के नुक्कड पर। कई लोगों की जान गई है। बहुत से जख़्मी हैं।" कह कर वो दौड़ गया। खिल्लन मियाँ सुनकर सन्न रह गए। थोड़ी ही देर में दमकल, एंबुलेंस, फौजी गाड़ियों आदि की आवाज़ें सुनाई देने लगी।

उस रात खिल्लन मियाँ बडे बेचैन रहे। मेहरू ने खाने को पूछा तो ''भूख नहीं है, तू खा ले।'' कहकर चुपचाप खाट पर पड़ गए और टकटकी लगाकर छत को ताकने लगे। बोझिल आँखों में टूटे सपनों की कतरनें तैर रही थी और पुतलियाँ स्थिर होकर खुदा से ख़ैरियत की भीख़ माँगती जान पडती थी। आज उनका जी बड़ा उचाट था। ठीक वैसा ही जैसा आज से सत्तावन बरस पहले हुआ था। पहली बार उनको लग रहा था कि अल्लाह ने उनकी दुआ कबूल नहीं की। वरना ये धमाके क्यों होते? मेहरू ने भी थोड़ा बहुत खाया और वहीं ज़मीन पर दरी बिछाकर सो गई। दोनों के बीच उस रात किसी किस्म की कोई बातचीत नहीं हुई। मेहरू खूब जानती थी अपने शौहर को। जब कभी वो किसी परेशानी में होते थे, तो किसी से कोई बात नहीं करते थे।

स़ुबह का समय। रफ़ीक दौड़ा जा रहा था। आज वो बडे उत्साह में जान पडता था। उसके हाथ में आज का अख़बार था और उसका रुख खिल्लन मियाँ के घर की तरफ़ ही था। रास्ते में अहमद मिला। उसने पूछा, "कहाँ जा रहा है बे फुदकता हुआ सुबह-सुबह? कोई लाटरी लग गई क्या?" तो वो ज़ोर से पुकार पड़ा, "अहमद भाई! इसी महीने की सात तारीख़ को पहली बस जाएगी सरहद पार। दोनों मुल्कों के हुक्मरानों ने फ़ैसला कर लिया है।" सुनकर अहमद का चेहरा भी खिल उठा था। ''अल्लाह, तेरा लाख-लाख शुक्र है'' अहमद के हाथ और नज़रें एक साथ आसमान की ओर उठ गए। दोनों एक दूसरे से गले मिले और आगे बढ़ गए।

रफ़ीक खुद ये ख़बर आज खिल्लन चचा को जा कर सुनाना चाहता था और इसीलिए अपनी दुकान छोड़ कर भागा चला जा रहा था, अचानक रोने की आवाज़ों ने उसके कदमों को जकड़ लिया। भारी कदमों से वो आगे बढ़ने लगा। आवाज़ें खिल्लन चचा के मकान की तरफ़ से ही आ रही थी। मेहरू चाची की दहाड़ें दूर तक सुनाई दे रही थी। रफ़ीक सन्न रह गया। हाथ का अख़बार छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ा प़न्ने दर्द के मारे फड़फड़ा गए।

 


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