कहानी — कहीं भी अँधेरा | लेखक - भालचंद्र जोशी

मैंने बहुत सावधानी से चारों ओर देखा लेकिन मेरे सिवा वहाँ कोई नहीं था। मुझे तसल्ली हुई, जिसका कि कोई कारण नहीं था। चारों ओर घने और बड़े-बडे पेड़, मुझे अजीब-सा लगा। मैंने हाथ बढ़ाकर एक पेड़ को धीरे से सरकाया तो सहसा पीछे से एक दूसरा ही दृश्य सामने आ गया।



दूर-दूर तक पहाडियाँ और उन पर कहीं घास तो कहीं चट्टानें उगी थीं। मुझे उस बात का आभास नहीं हुआ कि यहाँ कहीं कोई है। सहसा एक चट्टान के पीछे से वह बाहर निकली और मेरी ओर बढ़ने लगी। मैं घास के एक छोटे से टुकड़े के सहारे लेट गया। वह अचानक दिखाई देना बंद हो गई। मैं खड़ा हुआ तो वह फिर नज़र आई। अब वह मेरे नज़दीक थी। मुस्करा भी रही थी। उसकी मुस्कान में किंचित कौतुहल था या मेरे हाथ होने का पुलक, मैं ठीक से यह समझ पाता, उसके पहले ही उसने मुस्कान समेट ली। मुझे थोड़ा अचरज हुआ कल अस्पताल में उसका चेहरा बहुत डरा हुआ और हल्का लग रहा था।

मुझे लगा, यदि आज उसका चेहरा मेरे हाथों में होगा तो थोड़ा भारी होगा। मेरे मन में उसका कल का चेहरा स्थिर था इसलिए यह सामान्य और मुस्कान से लदा चेहरा देखकर मुझे सहज अचरज हुआ। वह मेरे पीछे देख रही थी। मैं जानता था मेरे पीछे पेड़ों का झुरमुट हैं। मैंने पलटकर देखा, दूर-दूर तक पहाड़ियाँ थी।

मैं अचरज में गिरता उसके पहले उसने मेरा हाथ थामा और नीचे तलहाटी की ओर दौड़ पड़ी। मैंने महसूसा, हमारे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। हम लोग घास पर लगभग तैरते हुए उतर रहे थे। इतनी खुशी का कारण मेरी समझ में नहीं आया। उसने मेरे हाथ को और खींचा फिर बोली, ''तुम्हें लगता है, मैं बीमार हूँ?''

मैं चौंक पड़ा। उसके स्वर में कंपन था लेकिन चेहरा मुस्करा रहा था। ध्वनि की प्रसन्नता से इस तरह असहमति मुझे अच्छी नहीं लगी। उसका चेहरा अपने प्रश्न से असंबद्ध लगा।
मैंने कहा, ''नहीं!'' और मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। जैसे यह मेरी आश्वस्ति का प्रमाण हो।
नीचे उतरते हुए मेरा हाथ उसके कंधे पर उछल रहा था। मैंने उसकी बाँह पकड़ ली। अब उसकी बाँह मेरी हथेली में थरथरा रही थी। मैं दौड़ते हुए या तैरते हुए रुक गया। फिर बोला, ''फिर क्या वजह है कि तुम नींद में या सपनों में से डरकर उठ बैठती हो। चीखने लगती हो। तुम जानती हो न, एक महीने से तुम इस अस्पताल में हो।''

वह भी थम गई। मेरी आश्वस्ति उसके कंधे से फिसलकर गिर गई। वह मुझसे अलग होकर दूर चट्टान पर बैठ गई। मैंने नीचे झुककर उसकी शाल उठाई और उसके नज़दीक जाकर बैठ गया। मैं उसे कह नहीं पाया कि एक महीने से मैं भी अस्पताल का अघोषित मरीज़ हो गया हूँ। मैं कैसे उसे कहता कि वह रात को जब अस्पताल में सोती है तो डर से पूरा परिवार जाग जाता है और फिर जब रात गए एकाएक वह सपनों से जागकर, डरकर उठ बैठती है तो चीखों से वार्ड भयभीत हो जाता है। उसका पूरा परिवार अपनी इकलौती संतान के लिए रोने लगता है। वह नहीं जानती है कि उसके पास डर है तो उसके परिवार के पास दुख। एक के पास अजाना डर तो दूसरे के पास पहचाना दुःख। तब डॉक्टर कोठारी ने कहा था कि तुम इस लड़की के दोस्त हो, काफी करीब हो। तुम इसके सपनों में दाखिल होकर देखो, क्या वजह है इस डर की। इन चीखों की।

यह सोचकर मैं थोड़ा रोमांचित भी था। इस जगह इस सपने में कहीं मैं एक जासूस भी हूँ। मैंने उसकी ओर देखा तो वह हमेशा की भाँति मुस्करा रही थी। बोली, ''तुम जानते हो न, इस समय हम लोग अस्पताल में नहीं, मेरे सपने में हैं।''
मुझे लगाउसके कंधे पर पड़ने वाली मेरी हथेली की थाप की आश्वस्ति से बड़ी उसकी यह मुस्कान है। मैं आश्वस्त हुआ। मैंने शाल फैलाकर खुद के कंधों पर डाल ली। आसपास नज़रें घुमाई तो फिर लगा, यह जगह, यह अजीब-सी घुमावदार पहाड़ियाँ और धुँधले से रास्ते, तिलस्मी धुंध, मेरी कहीं देखी-भाली है।
''हम कहाँ चल रहे हैं?'' मैंने उठते हुए पूछा।
''दूसरे सपने में। उस जगह, वहाँ उस पेड़ से दूसरा सपना शुरू हो जाएगा। बेहद सुंदर और कोमल'' कहकर उसने फिर मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगा, मैं उस पर निर्भर होता जा रहा हूँ और मेरी जासूसी के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।
''एक बात बताऊँ?'' वह मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर बोली, ''मैंने आज तक अपने सपनों में, किसी को नहीं आने दिया। मेरे सिवा यहाँ किसी के लिए भी जगह नहीं है।'' कहकर वह ठिठक गई। मैंने उसकी आँखों में देखा तो मुझे अच्छा लगा कि वहाँ से बहुत छोटे आकार में, मैं यहाँ खुद को, बड़े आकार में देख रहा हूँ। उसकी आँखों में जाकर वापस खुद को देखना मुझे अच्छा लगा। मैं खुश होकर बोला,
''यहाँ तो बहुत जगह है। फिर क्या कारण है?''

वह मेरी नादानी पर मुस्काई फिर बोली, ''यहाँ बिल्कुल जगह नहीं थी। आज तुम आए हो तो खाली की गई है। बहुत-सी चीज़ें, बहुत से पेड़, सड़कें और पहाड़ियाँ दूसरे सपनों में रखकर आने पड़े।''
वह आहिस्ता से मेरे करीब आकर कंधे पर हाथ धरकर बोली, ''यहाँ, जहाँ तुम खड़े हो, आँवले का पेड़ था। बचपन से सँभाल-सँभाल कर यहाँ तक लाई हूँ। अभी दूसरी जगह हटाना पड़ा है।''

उसकी बाँहें आँवले की टहनियों की भाँति मेरे कंधों पर झूल रही थीं। उसने धीरे से अपना सिर मेरे कंधे पर धर दिया तो लगा उसने आँवले के पेड़ का सहारा लिया है। मैंने उसकी पीठ पर हाथ धर दिया। उसकी देह भी सपने की भाँति कोमल थी।
''तुम जानती हो या नहीं कि बचपन या बचपना ख़त्म हो गया है?'' मैंने बहुत आहिस्ता से कहा कि उसे मेरी हथेली या मेरे कंधे पर टिका उसका सिर न सुन सके। लेकिन ऐसा न हो सका। वह मुझसे अलग होकर घास पर लेट गई। घास का हिस्सा दब गया और शेष घास के तिनकों ने उसकी देह को सहारा देकर रोक दिया।

''तुम्हें भरोसा है?'' इस बार वह बोली तो मैंने देखा उसकी आँखों में मैं नहीं था। आँवले का पेड़ था।
''किस बात का।'' मैं तनिक रुककर बोला। मुझे लगा, अपने प्रश्न को उतावली से खारिज करके ही मैं यहाँ मंतव्य तक पहुँच सकता हूँ।
''कल तक मैं स्कूल में थी। आज कालिज में हूँ।''
वह चोटी को उँगली में लपेटते हुए बोली, ''मुझे माँ की बात पर भरोसा है। उसने कहा कि मैं एक ही दिन में बड़ी हो गई हूँ। इसीलिए कल मैंने दो चोटी की थी आज एक चोटी गुँथी है। कल मैं स्कर्ट पहने हुए थी, आज साड़ी पहनकर आई हूँ।'' 
''लेकिन तुम तो कल भी साड़ी पहनकर आई थी।'' मैं धीरे से बोला। अपनी सतर्कता पर मैं खुश हुआ लेकिन प्रकट नहीं किया।
वह हँस पड़ी, ''नहीं, साड़ी तो आज ही पहनी है। कल तो स्कूल गई थी। स्कर्ट पहनकर। गाँव से चाचा आए थे। बता रहे थे कि कल तक मैं उनकी उँगली पकड़कर चलती थी, आज उनके कंधे के बराबर हूँ।''
''यह तो मुहावरा है।'' मैंने आदतन धीमे से विरोध किया।
''नहीं यह सत्य है।'' वह गरदन हिलाकर बोली, ''ये देखो, मैंने आज एक चोटी गुँथी है।'' अपनी चोटी का रिबन पकड़कर चोटी को झुलाने लगी।

मैं चुप हो गया। मुझे लगा, हो सकता है, सपनों में लड़कियाँ इसी तरह की बातें करती हों।
सपने में होने के बावजूद मैंने महसूस कर लिया कि सपने में भूख नहीं लगती है और न प्यास। यह भी मुमकिन है कि लड़कियों के सपनों में ही भूख और प्यास के लिए जगह नहीं हो। वर्ना मैं तो भूख के सपने में पैदा हुआ और रोटी के सपने में बड़ा हो गया।

अब मुझे राजनीति और सपनों का संबंध समझ में आया। हर बार ये राजनेता नए सपने बुनकर हमारे लिए फैला देते हैं मेरे पिता भी इसी तरह का सपना देखते रहे थे। ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े को खेत की खुशफहमी में जोतते रहे और किसान होने का सपना देखते रहे। एक दिन बैंक के कर्ज़े की वसूली में ही खेत चला गया। उस कर्ज़े के लिए, जो खेत के लिए मिला था। शायद बैंक ने भी खेत का सपना देखा होगा।

मैंने पलटकर उसे देखा। वह दूसरी तरफ़ देख रही थी। मैं पूछना चाहता था कि उसके अंधे पिता ने कभी कोई सपना देखा या नहीं?
उसने मेरी हथेली खोलकर सामने कर ली और फिर उस पर उँगलियाँ घुमाने लगी गोया सपनों का ब्यौरा लिख रही हो फिर वह मेरी हथेली पर लिखते हुए बोली, ''बचपन से लेकर अभी कॉलेज तक मैं यह सपना भी देखती रही कि मेरे पिता मेरा सपना देख रहे हैं, इसलिए हर बार हर एग्ज़ाम में टॉप किया। यदि बीमार न होती और अभी पिछले हफ़्ते कॉम्पीटिशन के लिए दिल्ली जाती, तो मेरा सिलेक्शन तय था।''
कहकर वह हँस पड़ी। उसकी हँसी परी तलहटी में फैलने लगी। हँसी के बोझ से घास दुहरी हो गई। कुछ ही देर में पूरा इलाका हँसी से भर गया। शायद इन सपनों में दुःख के लिए मुमानियत है।
एकाएक वह उठ खड़ी हुई। उसने अपनी हथेली मेरी हथेली पर रगड़ दी और अपना सारा कहा मिटा दिया।

''चलो।'' कहकर उसने फिर मेरा हाथ थाम लिया। हथेली का कहा तो मिट गया था लेकिन उस मिटे हुए की रगड़ मेरी हथेली में चुभने लगी। शायद यह मेरा भ्रम ही हो, कि चुभन मेरी हथेली में हो रही है। चुभन भीतर कहीं हो और अहसास हथेली को सौंप दिया हो, यह भी मुमकिन है। इस तरह जगह बदली जा सकता है? मैंने देखा, तलहटी में अभी भी हँसी फैली है।
इतनी सारी हँसी पर पैर रखकर कैसे चलेंगे? सोचता हुआ आगे बढ़ा मैं।
एक बहुत ही छोटी-सी इमारत थी। धुंध में डूबी हुई। और दूर तक रेल की पटरियाँ हँसी के समान दौड़ी चली गई थीं, जूते पहन रखे थे, बावजूद इसके मुझे घास के दबने का अहसास हो गया था। मैंने पूछा, ''हम लोग रेल से चलेंगे?''
''तो क्या इतनी दूर, दूसरे सपने तक हम पैदल जाएँगे?'' उसने प्रतिप्रश्न किया और हँस पड़ी। मैं अपनी नासमझी पर शर्मिंदा हुआ। मैंने कहा, ''मैं तो यों ही पूछ रहा था।'' कहकर मैं भी हँस पड़ा। मैं अब समझने लगा था कि इस तरह हँसी बहुत मददगार होती है।

स्टेशन पर एक काला कोट पहने वकीलनुमा बूढ़ा आदमा खड़ा था शायद स्टेशन मास्टर था। उसने बहुत गर्मजोशी से हमारी अगवानी की। मेरी अपेक्षा लड़की का बहुत ख़याल रखा जा रहा था। मैंने महसूसा, टिकट लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मेरी दुविधा को वह भाँप गई। बोली, ''ये मेरे अपने हैं। मेरे सपनों की चीज़ें। मेरी सल्तनत। यहाँ किसी भी तरह के भुगतान की ज़रूरत नहीं।''

उसके स्वर में गर्व था। मुझे अफ़सोस हुआ। मेरे पास ऐसे समृद्ध सपने नहीं हैं।
स्टेशन मास्टर ने कहीं खबर कर दी थी। सिर्फ़ हम दोनों के लिए रेलगाड़ी लाई जा रही थी। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और अपनी दोनों हथेलियाँ रगड़ने लगी। उसके हाथों से मेरा स्पर्श झरने लगा। मेरे हाथ में उसके स्पर्श का गीलापन था फिर हल्की-सी बारिश शुरू हो गई।

इतने लंबे सपने में यह पहली बरसात थी। बरसात की बूँदें ज़मीन पर गिरते ही धँसकर नीचे कहीं चली जाती थीं। मैंने देखा, उसने चेहरा ऊपर उठा लिया था और बूँदें उसके चेहरे पर भी गिरकर भीतर कहीं धँस रही थीं। गिरने के बाद नज़र नहीं आती थीं। बहुत इत्मीनान के साथ उसका चेहरा बरसात पी रहा था।

उसका चेहरा बहुत मुलायम लग रहा था। उसके चेहरे पर एक ऐसी तरलता थी कि मैं यदि हाथ रख देता तो चेहरा डबडबा आता। उसका चेहरा हाथों में लेने का विचार भी मुझे स्थगित करना पड़ा। सपनों में बरसात, प्रेम के लिए मुनासिब नहीं है। इतने आकर्षण के बावजूद मैं उसे चूम नहीं पाऊँगा। मैंने कभी किसी तालाब को नहीं चूमा। बारिश बदस्तूर जारी थी और उसकी देह झरना हो रही थी। उसके दो गोरे पाँव पानी की धाराओं से धुल रहे थे गोया प्रकृति अभिषेक कर रही थी। हल्की-सी भी चलने वाली हवा का लाभ उठाकर, घास के तिनके ज़रूर उसके पैरों से लिपट जाते थे।

एक बात और अजीब-सी थी लेकिन अब मैंने अचरज करना छोड़ दिया। गिरते पानी की धाराएँ कहीं नहीं जा रही थीं, इतनी बेतरतीब ज़मीन और धाराओं का इस तरह लुप्त हो जाना अजीब-सा था। मैं तो न सोचता था, लड़कियाँ बहुत ही रंगीन सपने देखती हैं। बहुत ही आकर्षक। मैंने सोचा, यही लड़की इस तरह के सपने देखती है या आजकल की लड़कियों के सपने बदल गए हैं?

मैंने उसकी ओर देखा, अब वह बेंच पर बैठी थी और गरदन झुकाकर नीचे कुछ देख रही थी। बालों ने उसका चेहरा ढँक रखा था। उसके कोमल और सुंदर चेहरे के बगैर इस तरह उसका धड़ मुझे आकर्षक नहीं लगा। मुझे लगा, किसी हॉरर फ़िल्म की भाँति वह अभी बालों से बाहर अपना चेहरा निकालेगी और बढ़े हुए दाँत, विकृत और विकराल चेहरे को मेरे हाथों में धर देगी। सपनों में इस तरह की घटनाएँ मुमकिन हैं। कुछ बातें सपनों में एकाएक इसी तरह घटित होती हैं।

मैं मुँह फेरकर दूसरी ओर बैठ गया। बारिश बंद हो गई थी। अब मुझे हल्की-सी ठंड लग रही थी। मुझे गीले कपड़ों को बदलने की चिंता होने लगी। सपने में होने के बावजूद मैं अपनी तासीर से अनभिज्ञ नहीं था। कपड़े नहीं बदले तो बुखार चढ़ जाएगा।

एक गीले स्पर्श से मेरी तंद्रा भंग हुई। वह मेरे नज़दीक आकर खड़ी हो गई थी। उसने हाथ बढ़ाकर मेरा चेहरा कटोरे की भाँति थाम लिया। मैंने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, उसका स्निग्ध चेहरा मुस्कराने की चिर-परिचित हरकत कर रहा था। उसकी मुस्कान में पुरानापन नहीं था। जाने कैसे, वह हर बार नई मुस्कान ले आती है।

वह बहुत गीले स्वर में बोली, ''अभी कुछ देर में धूप की बारिश होगी। कपड़े सूख जाएँगे। सपनों में भी चिंता करोगे तो कैसे काम चलेगा? तुम मेरे सपनों की तासीर मत बिगाड़ो।'' कहकर उसने मेरे गाल थपथपाए तो बारिश की बूँदों के अलावा चिंता भी बह निकली। वह अपनी सफलता पर हँसने लगी। एकाएक उसने ऐसी बात कहीं जहाँ उसकी हँसी पिछड़ रही थी।

डरकर उठ बैठी हूँ। तुम लोग एक हँसी और चीख में फ़र्क क्यों नहीं कर पाते हो?'' कहते हुए उसका चेहरा मुस्कराने की विवशता और तनाव में रक्ताभ हो गया।
मैं उठा और उसके दोनों कंधों पर हाथ धरकर पीछे देखने लगा। दूर... जहाँ से धूप की बारिश तेज़ी से, रेलगाड़ी की भाँति दौड़ती आ रही थी। धूप की आहट के बावजूद गीलापन आतंकित नहीं था।

वह किसी कोमल टहनी की भाँति मेरी देह से टिक गई तो उसका चेहरा मेरे सीने में धँस गया। उसकी साँसें मेरी देह में यात्रा करने लगी। पता नहीं क्यों हर सपने में दाखिल होते ही वह अगले सपनों में जाने को उतावली हो जाती है। यात्राओं के लिए उसके भीतर उत्सुकता नहीं बेचैनी है और यात्राओं की खातिर इस तरह बेचैन व्यक्ति मैंने कभी देखे नहीं हैं। मैंने महसूस किया, हमारे कपड़े सूख गए हैं। धूप की बारिश से घास में, धूप की उजली धाराएँ बह रही थीं। कुछ देर पहले जल की धाराओं के न बह पाने का मेरा मलाल जाता रहा। उसने अपना सिर मेरे सीने से हटाया तो मैंने धीरे से उसके कंधों पर हात धर दिए।

फिर मैंने थोड़ा झुकाकर अपना सिर उसके कंधे पर टिका दिया और नज़रें उसकी पीठ से फिसलकर नीचे की धार में गिर पड़ी। अगली नज़र उसे उठाकर लाए तब तक वह बहकर दूर निकल गई। इस तरह बहकर मेरी नज़रें जाने किन सपनों में चली जाएँगी। वहाँ फिर कोई जल की बारिश उसे गीला कर देगी और वे डबडबबा आएँगी या किसी घास में अटककर तिनकों की नोक पर रुक जाएँगी। इसी तरह चलते हुए मुमकिन है कि मुझे ही किसी सपने में किसी घास के नीचे या धूप की धारा के ऊपर तैरती अपनी नज़रें फिर मिल जाएँ। मैं उठाकर फिर से अपनी आँखों में धर लूँगा। लेकिन इस बीच जितना कुछ वे देख चुकी हैं वह मेरी आँखों में बस जाएगा।

मैं मुस्करा दिया। उसके कंधे पर सिर को टिकाए गिरती धूप को सुनता रहा। घास का एक भरा-पूरा परिवार कान खड़े किए धूप का संगीत सुन रहा था। धूप का बोझ या संगीत की खुशी, जाने क्या था कि सारी घास दुहरी हो रही थी। लहर रही थी। अभी कल ही यहाँ का दृश्य बदल जाएगा। फिर यहीं-कहीं पेड़-पौधे और सब कुछ लौट आएगा। अभी जहाँ हम खड़े हैं? कल कोई पेज़ रहेगा। यह ज़मीन, यही घास हमारी चुप्पी के किस्से सुनाएगी। कल यही धूप पेड़ पर गिरेगी, पत्तियों पर गिरेगी।
मैंने एक लंबी साँस ली तब मुझे ख़याल आया कि सपने में मैंने पहली बार साँस ली है। मैंने उसके कंधे से अपना सिर उठाया तो उसने वापस अपना सिर मेरे सीने पर धर दिया, जो धीरे-धीरे फिर से मेरे भीतर धँसने लगा। फिर वह बहुत आहिस्ता से बोली, ''तुम जानते हो, अंधे लोग भी सपना देखते हैं?''

उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी। उसका सिर मेरे सीने में धँसा था। जहाँ से उसकी आवाज़ के टुकड़े भीतर कहीं गिर थे और मैं धीरे-धीरे उन्हें उठाकर सुन रहा था। टुकड़े फिर गिरे।

''अंधे लोगों के सपनों में नहीं घुसना चाहिए। सब कुछ अजीब। कुल कुटुंब के ढेर सारे लोग। एक काँपता हुआ अंधा बूढ़ा उस कुल-कुटुंब की भीड़ के आगे दीपक जलाने की नाकाम कोशिश करता हुआ अपराधी-सा खड़ा है कुलदीपक की चाह में आदमी दूसरी रोशनी को अनदेखा कर देता है। हज़ारों साल से यही हो रहा है। परिवार को, कुल को रोशनी तो चाहिए लेकिन कुलदीपक से।'' सहसा उसकी आवाज़ किसी गाढ़े अंधेरे में डूबने लगी लेकिन मुझे सुनाई दे रही थी। कुछ क्षण वह चुप रही फिर सहसा ज़ोर से हँसी।

हँसी के इस विस्फोट से मैं टुकड़े-टुकड़े होकर ज़मीन पर बिखर गया। मैंने देखा। वही काला कोट पहने स्टेशन मास्टर मेरे टुकड़े बिनकर मुझे जोड़ रहा है। उसने मेरा सिर धड़ पर रखा तो मैंने अपना एक हाथ बढ़ाकर उससे अपना दूसरा हाथ ले लिया और कंधे से जोड़कर उसकी ओर देखा तो वह हँस रहा था। सपनों में हँसने के आग्रह के कारण यह मुझे उसकी नौकरी की अनिवार्यता भी लगी। मैंने उसे डाँटकर चुप करने का अपना इरादा बदल दिया। उसने बताया रेलगाड़ी आ चुकी है। आप तो अकेले खड़े थे। अब मुझे अचरज हुआ। मैंने उसे बताया कि मैं अकेला नहीं मेरे साथ वह भी थी। वह मुझे देखकर फिर हँसने लगा। मैं आसपास देखने लगा। कोई नहीं था। उसे तो मेरे साथ होना चाहिए था या मेरे भीतर। कहाँ है वह?

मैंने स्टेशन मास्टर को एक ओर हटाया ओर आगे दौड़ पड़ा। घबराकर स्टेशन मास्टर मेरे पीछे दौड़ा। वह मेरे पीछे दौड़ा। वह मेरे पीछे दौड़त हुआ चिल्ला रहा था, ''ये सपने आपके लिए अजनबी हैं। आप गुम हो जाएँगे। दूसरे अजनबी सपनों में अकेले निकल गए तो खोजना मुश्किल हो जाएगा। आप अकेले लौट भी नहीं पाएँगे...''

वह चिल्लाता हुआ पीछे कहीं ठिठक गया। शायद उसकी हद वहीं तक थी। मैं भाग रहा था औऱ सोच रहा था कि वह इस तरह मुझे छोड़कर कहाँ चली गई? बहुत दूर तक भागता आया और फिर थककर मैं रुक गया। अब मैंने आसपास देखा तो सब कुछ बदला हुआ था। ऊबड़-खाबड़ रेतीली ज़मीन और घुमावदार पहाड़ियाँ। सूनी और खाली गोद वाली नदियाँ। हवा न पानी। फिर भी लग रहा था कि छोटी-छोटी पहाड़ियाँ चल रही हैं। सरक रही हैं। उन पर जमी रेत फिसल रही है और धुँधले-से रास्ते ठिठके खड़े हैं। उस शाम अस्पताल में जब उसे सोनोग्राफी के लिए ले गए थे तो मैं भी साथ था। ठीक यही सब कुछ मैंने स्क्रीन पर देखा था। हालाँकि मैं समझ नहीं पाया था कि देह के भीतर यह कैसा तिलस्म है? क्या देह पर फिरता हुआ ट्रांसड्यूसर सपनों का तिलस्म तोड़ने की कोशिश करता है? तो फिर डॉ. कोठारी ने क्या मुझे इसीलिए भेजा?

उसकी देह में दौड़ती-भागती प्रकृति याद है मुझे। इसी तरह स्क्रीन पर पहाड़ियाँ सरक रही थीं और रेत फिसल रही थी। अब मैं समझ गया कि मैं आगे कितने ही सपनों में भागता चला जाऊँ तब भी यह दृश्य बना रहेगा। यदि ऐसा न हो तो एक सपना दूसरे सपने को धकेल कर आगे आ जाएगा।

मैंने भागती हुई पहाड़ी पर हाथ धरकर अपनी हाँफती हुई देह को सँभाला। अब मैं भूल गया था मैं किसी को खोजता हुआ भाग रहा था। कोई था जो गुम हो गया था। मैं मुस्करा दिया कि स्टेशन मास्टर सोच रहा था कि मैं भटक जाऊँगा। मुझे मुस्कान का जादू भी समझ में आया। मैंने देखा कि मेरे धरे हुए हाथ के नीचे रेत के टीले सरकते जा रहे थे। पहाड़ियाँ आगे बढ़ रही थीं। मेरी मुस्कान चौड़ी हो गई। फिर मैंने ज़ोर का ठहाका लगाया मेरी हँसी पहाड़ियों में फैल गई और अनेक रेत के टीले हँसी से भरभरा गए लेकिन हँसी थी कि फैलती जा रही थी।
''जल्दी डॉक्टर को बुलाओ।''
दूर कहीं हज़ारों सपनों के पार नर्स की आवाज़ आती है।

 

 

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